महीने का अंतिम दिन था। सूरज की छुट्टी हो गई थी और चांद हाथ में टिफिन का डब्बा लिए नाइट ड्यूटी के लिए बस पहुँचने ही वाला था, शाम की मदहोशी छाई हुई थी।
इधर सूरज की छुट्टी होते ही कामगारों की भी छुट्टी हो गयी। सब अपने-अपने रूम की ओर प्रस्थान करने लगे। हालांकि कलेसर का कार्यस्थल और विश्रामस्थल एक ही है तो उसे कहीं जाना ही नहीं है। मगर फिर भी छुट्टी होते ही कलेसर को बड़ी तेज कदमों से निकलता देख, भीखन भी निकला, तो पाया कि उनके बीच लगभग पंद्रह कदम का फासला हो चुका है।
"अहो! कलेसर दा कहाँ जाय रहे हैं।" भीखन ने ऊँची आवाज में पूछा।
जवाब में कलेसर ने बिना पलटे सिर्फ़ हाथ उठाकर हवा को दो बार थपकी दे दी।
"पता नहीं कहाँ जाय रहा है। आज तनख़्वाह पाया है। कहीं राशन.... ,
ना-ना राशन तो पिछले इतवार को ही महीने भर का ले आये हैं मालिक से एडवांस पैसा लेकर। " भीखन के मन में ख्याल गुलेटी मारने लगे।
भीखन अपने विश्रामस्थल में लौट आया। विश्रामस्थल काफ़ी हवादार है। अच्छे - अच्छे एसी जरे कमरे भी फेल हैं, इसके मुकाबले । जिसकी एक भित्ति बगल के मकान से जुड़े होने के कारण ईंट और सीमेंट की गठजोड़ से मजबूत बनी है। दूसरी भित्ति काली पॉलीथीन के द्वारा दो भट्ठी यानि कार्यस्थल को बाँटती है। बाकी बचीं दो भित्ति वायुकणों की है जो सर्दी के मौसम में जूट के बोरे से बने पर्दे की जगह ले लेती है।
कलेसर और भीखन बिस्तर साझा करके उसी आनंदमय हवादार स्थान पर चटाई बिछाकर सोते हैं।
"बहुत अबेर हो गया अबले कलेसर आया नहीं। खाना क्या बनाऊँ? दाल-भात ही बना देता हूँ। दाल में आलू डाल दूँगा बस चोखा बन जाएगा। कुछ बोलेगा तो बोलूँगा तब से कहाँ थे? आँच भी तो धीरे-धीरे खत्म हो रही है। " भीखन ने चावल भट्ठी की आँच पर चढ़ा दी।
ताव ज्यादा होने के कारण पाँच मिनट में ही कूकर ने बोलना शुरू कर दिया।
लोग भी जुटने लगे, जो रोज ही आते हैं । ये वे लोग हैं, जो बड़े-बड़े फैक्ट्री या कंपनी में काम करते हैं और यहाँ अपने बीबी यानि परिवार से बचकर जाम लेकर आते हैं, पीते हैं, जुआ खेलते हैं और घर चले जाते हैं। कुछ लोग यहीं के रहने वाले थे और कुछ उनकी संगत में रहने वाले भीखन और कलेसर की तरह ही प्रवासी हैं।
भीखन ने दाल में आलू डालकर भट्ठी पर चढ़ा दिया।
तभी एक बहुत तेज सीटी सुनाई दी, जो ट्रेन की थी। यह भट्ठी और पूरी बस्ती रेल की पटरी के बगल में बसी है।
भट्ठी के बगल में एक बहुत बड़ा नाला भी बहता है, जो बस्ती से सटे शहर की तमाम गंदगी एवं मलबों को धारण करता है।
"खाना बनाय लिया भीखन! "-कलेसर आते ही पूछा।
" हाँ, तोहर रस्ता कब तक ताकते? ऊं"-भीखन ने मुँह बिचकाते हुए कहा।
"आ जा भीखन एक-एक पेग लगा लेते हैं, थकान मिट जायेगी। तब खाना खायेंगे। "-कलेसर ने गमछा से शराब से लपालप भरी बोतल निकालते हुए बोला।
" अरे! कलेसर भाय करवा दिए ना खर्चा। हम भी रमिया से मँगवा लिये थे, साँझ में ही।काहे कि इ बार हमको ही लाना था ना। पिछली बार ही तय हुआ था। "-नाराज होते हुए भीखन ने कहा।
"कोय बात ना भीखन भाय। हमको याद ही नहीं था।शरीर टूटल जा रहा था सोचा ले आऊँ।देर हो जायेगी तो निकलना मुश्किल हो जाएगा। एक अभी हो जायेगा, एक खाते वक्त। चोखा वाला चखने के साथ।"-कलेसर ने बैठते हुए बोला।
इधर बैठकर दोनों दारू का स्वाद ले रहे हैं। जाम में जाम टकरा रहे हैं। उधर जुए का खेल शुरू हो चुका है। भीखन और कलेसर ने कभी जुआ नहीं खेला।बस देखते थे। वो भी इसलिए कि उनके पास दूसरा विकल्प न था। जब तक वे लोग जायेंगे नहीं तबतक वे दोनों सो भी नहीं सकते थे। मगर इसबार वहाँ जुआ देखने रमिया भी आया।
रमिया पड़ोस की भट्ठी में काम करता है और वहीं रहता भी है। नौजवान] नशे से दूर] बुरी संगत से दूर अपने काम से मतलब रखने वाला प्राणी है। केवल भीखन और कलेसर से ही बातचीत करता और किसी से नहीं। रमिया के बाबूजी को पथरी की शिकायत थी। डॉक्टर ने कहा है जल्द से जल्द अkWपरेशन नहीं हुआ तो बचना मुश्किल हो जायेगा। रमिया आWपरेशन के लिए पैसा इकट्ठा करने में लगा है।उसके लिए ओवरटाइम का मौका भी नहीं गंवाता है।मुश्किल से पंद्रह हजार ही जुटा पाया, मगर पंद्रह अब भी बाकी है।रमिया कुछ देर खेल को देखता रहा।
इधर दोनों एक बोतल जाम को अपने में अंदर उतार चुके हैं।
दोनों की आँखें अपना - अपना रंग बदलकर सुर्ख लाल हो गयी थी। कलेसर ने खुद को संभालते हुए चुपके से अपना बटुआ निकालकर चावल वाले डब्बे में रख दिया। मगर कुछ लोगों की नजर तेज भी होती है।
दाल भी बन गयी। भीखन ने चोखा बनाया और दोनों खाने बैठ गये।
"ले आ भीखन अपन वाला भी। चोखा के साथ तो अलगे मजा है। "-कलेसर ने डोलते हुए बोला।
भीखन ले आता है। दोनों बैठकर खाते हैं और पानी की जगह मद्यपान का आनंद लेते हैं।
" ले भोसड़ीवाले पाँच हजार का दांव है। अब खेल।"
यह आवाज उस इलाके की सबसे बड़े जुआरी उस्मान की थी,जो भट्ठी के मालिक के भाई का दोस्त है । उसका बाप इस नगर का महापौर है। बाकी वहाँ जितने भी जुआरी हैं, उसी के गैंग के हैं। सब हाथ खड़े कर चुके थे। रमिया के मन में लालच आ गया। वह खेलने बैठ गया। वह अभी-अभी नया जुआरी बना था इसका कारण बाबूजी के ईलाज के अलावा और कुछ न था।नया-नया जुआरी बनने पर लोग उसका स्वागत गान करने लगे।
"अब ये लौंडा उस्मान से भिड़ेगा। "
" बेटा निकल जा, कंगाल हो जाएगा। "
" अबे चूतिये! हारने का शौक है क्या? तेरे को। "
"पाँच हजार!" - रमिया ने दांव रखते हुए तेज आवाज में बोला।
पहला दांव रमिया जीत जाता है। सब हैरान हो जाते हैं।
"पहला दांव तो तू जीत गया हरामी! ये बाय चांस भी हो सकता है। अब जीत के बता। दस हजार का खेल है। "-उस्मान आँखें बड़ी-बड़ी करके दांत पीसते हुए बोला।
रमिया भी दांव रख देता है। यह खेल तो पहले से भी ज्यादा रोचक चल रही थी।अब लोगों को पता था कि रमिया भी जीत सकता है। इसलिए उसके चेहरे के भाव को भी देख रहे थे।उस्मान इसबार सोच समझकर पत्ते डाल रहा था।
मगर काले पान के इक्के ने उसके चिड़ी के गुलाम को धूल चटा दिया। वह खेल हार चुका था। दो बार लगातार हारने से उसके दिमाग में हलचल शुरू हो चुकी थी। उसने सिगरेट निकालकर जलाया और लगातार बिना रूके कश लगाये जा रहा था।
लोग निस्तब्ध होकर रमिया को देखते रहे। लोगों की नजर उससे बार-बार पूछ रही थी,कैसे? अब यह बात रमिया कैसे समझाये कि यह उसके स्कूल से बंक मारकर दोस्तों के साथ बिताए गए समय की वजह से है, जिसमें वह उसी बावन पत्तों से खेलना जान गया। जिससे यहां लोग जुआ खेलते हैं। वह उठकर जाने लगता है क्योंकि वह समझता था कि अति लोभ उसे कंगाल बना सकता है।
इस बार उस्मान ने जेब टटोलते हुए दो हजार का आखिरी नोट निकालकर उसे ललकारता है। मगर रमिया झांसे में नहीं आया।
"खेल ले रमिया! साहब कहते हैं तो..... । तू अच्छा जुआरी है। पाय का टेंशन काहे लेता है? हम दे दूँगा। "-आखिरी पेग गले से उतारते हुए लड़खड़ाते हुए जुबान में कलेसर ने कहा।
सबकी गर्दन मुड़ी और कलेसर पर केंद्रित हो गई, जहाँ कलेसर इंद्र की गद्दी हथिया चुका था और उसके मनोरंजन हेतु ये नौटंकी चल रही थी।
उस्मान बिना रूके सिगरेट के कश लगाये जा रहा था उसे बहुत ज्यादा टेंशन हो रही थी। रमिया ज्यादा देर रूकना मुनासिब नहीं समझा।वह बिस्तर पर जाकर लेट गया।सब लोग चले गये। उस्मान , बहुत तेजी से निकला जैसे बहुत जल्दबाजी में हो।
रमिया बिस्तर पर लेटे सोच रहा था कि यह वही कलेसर काका है जिन्होंने कहा था-
"रमिया अब की बेर बिटिया की शादी करनी है।चार - पाँच लाख लगेंगे। कहाँ से लाऊँगा? "
और भीखन काका के ऊपर तो दुःख का पहाड़ पहले ही टूटा हुआ है। जवान बेटे के दुनिया छोड़ जाने की पीड़ा सहन करना कोई मामूली बात थोड़ी है। अब घर में बीबी, बहुरिया और तीन साल की पोती मुस्कान की मुस्कान ही बची है और परिवार संभालने का दारोमदार इनके ऊपर ही है।
आखिर बूंद-बूंद से ही घड़ा भरता है ना। मगर ये तो बहाने में लगे हैं।
बहाना ही है तो बहाये मैं कर भी क्या सकता हूंँ? गलत तो मैंने भी किया जुआ खेलकर मगर मेरी तो मज़बूरी थी ना।
खैर उनकी मर्जी जो जी में आये करें, मुझे क्या?
रमिया करवट लेकर अब बाकी बचे पैसों के बारे में सोचने लगा। पूरी रात जागने का निश्चय उसने पहले ही बना लिया था। क्योंकि वह बस्ती उतनी सुरक्षित नहीं थी।
“आWपरेशन के लिए पैसे का तो इंतजाम हो गया। दवाई के लिए कहाँ से लाऊँगा?
और किराया?
ऐसा करता हूँ किराया इसी से निकाल लेता हूँ और दो - तीन हजार राहु सेठ से कर्ज ले लूँगा।
और बाबूजी के खाने-पीने के लिए?.......
चने के सत्तू ही पी लिया करेंगे। सबको हाWरलिक्स और काजू - किशमिश नसीब थोड़ी होता है। मुश्किल से आWपरेशन के लिए इकट्ठा कर पाया हूँ। "-रमिया सारा हिसाब-किताब जोड़ रहा था। पैसे गिन रहा था और आपस में ही बुदबुदा रहा था।
तभी प्लास्टिक के बोरे से बनी द्वार से सरसराहट की आवाज़ उसके कानों में पड़ी। उसे लगा कोई बोरे की छाती फाड़कर उसकी बातों सुन व देख रहा हो। तबसे वह अधिक सतर्क हो गया।
उसके बाद जब कभी भी कदमों की आहट करीब आता सुनता गाना गाने लगता। जैसे किसी को कह रहा हो, मत आना जगा हुआ हूँ। कभी-कभी हिम्मत करके बाहर आकर टहल लेता।
कलेसर और भीखन तो अथाह नींद में बिना करवट लिए पड़े थे। उनकी सुरक्षा भी रमिया ही पहरेदार बनकर कर रहा था।
पौ फटते ही रमिया स्टेशन के लिए निकला। स्टेशन पास में ही दो किलोमीटर के फासले पर था। इसलिए पैदल ही शार्टकट रास्ते से ही चल पड़ा।
स्टेशन के प्लेटफार्म पर जाने के लिए रमिया पटरी पार कर ही रहा था कि गांजे के नशे में धुत्त पाँच युवकों ने उसका रास्ता रोका और पकड़कर साइड में ले गये, जहाँ से कोई देख न सके।
चाकू रमिया के किडनी के ठीक सामने उदर के माँसल भाग को छू रहा था और किडनी को घूर रहा था।
रमिया ने बलजोड़ी करना ठीक नहीं समझा और बैग पटककर गिरगिराते हुए बोला-"लो भाई! लेकिन मुझे छोड़ दो।"
एक युवक ने बैग उठाया और गमछे से बंधी पैसे की पोटली निकालकर गिनने लगा।
आख़िरी नोट गिनकर युवक ने कहा - "उनतीस हजार हैं। भाउ! "
दूसरे युवक ने कहा-"बाकी के एक हजार कहाँ हैं? "
रमिया ने माथे में यह बात ठनका हालांकि उसने वह हजार रुपये भी निकालकर दे दिए, जो किराये के लिए अलग से पॉकेट में रखा था। पैसे पाकर सभी युवक रफूचक्कर हो गये।
रमिया के मन में अब तरह-तरह के ख्याल आने लगे।
"अब क्या होगा?
बाबूजी का इलाज कैसे करवाऊँगा?
पैसे कहाँ से लाऊँगा?
पैसे छीनने वाले कौन थे?
अगर मैं बाबूजी को नहीं बचा सका, तो मेरा जीना भी व्यर्थ है।
यहीं पटरी पर लेट जाता हूँ और शरीर को ट्रेन के हवाले कर देता हूँ।
फिर बाबूजी और माँ का क्या होगा? "
रमिया की हालत किसी पागल से कम न थी। जैसे - तैसे खुद को संभालकर शरीर का बोझ लिए लौटने लगता है। रास्ते में बार - बार यही ख्याल आया -
" आखिर वे लोग कौन थे?
एक हजार तो उन्होंने ऐसे बोला जैसे वो जानते हों कि मेरे पास कितने पैसे थे।
कलेसर और भीखन काका तो ऐसा नहीं करवा सकते।
वो जुआरी? उस्मान!
रात वाली कदमों की आहट भी उसी की तरह ही लग रही थी। वो चंगुल पर ज्यादा वज़न रखता है। उसके इतर और कोई भी नहीं वहाँ जो ऐसे चलता हो। वो तो मालिक के भाई का दोस्त है। उसका बाप महापौर है। उससे भिड़ना.... , ना भाई ना।
कान पकड़ता हूँ आज के बाद जुआ न खेलूँगा।
मेरी मेहनत की कमाई भी ले गया साला।
बाबूजी का इलाज, कैसे होगा? "-सोच - सोचकर रमिया के दिमाग की नशे फटी जा रही थी।
आँखों से आँसू बहे जा रहे थे। रास्ता खत्म ही नहीं हो रहा था। आज यह दो किलोमीटर की जगह दो मील का लगने लगा था।
हाथ नचाते, पैर घसीटते, सिर झुकाये रमिया आगे बढ़ रहा था। जाते-जाते उन लोगों ने हाथों को मरोड़ एवं पैर पर लातों की बारिश कर दी थी। धीरे-धीरे पहुंचा। पूरे दिन उसने चाय की टपड़ी पर बैठकर काट ली, जो भट्ठी के करीब ही थी।
शाम को छुट्टी होते ही कलेसर एवं भीखन से मुलाकात हुई। साथ में बैठकर उसने सारी बातें बताई और फूट-फूटकर रोया। रमिया को रोता देख कलेसर और भीखन का कलेजा भी कलप गया।
"आख़िर हम गरीबहा को ही लोग क्यों सताते हैं। "-भीखन ने आँसू पोछते हुए बोला।
कलेसर ने खाना बनाया। तीनों खाने बैठ गये। खाना खाया तो नहीं जा रहा था।
कौर उठाते ही रमिया को बाबूजी का चेहरा सामने आ जाता था। मुश्किल से उसने चार - पाँच कौर खाया।
कलेसर और भीखन रमिया को छोड़कर एक साइड में आ गये और विचार करने लगे। आखिर क्या किया जाए?
भीखन के मन में एक विचार आया जो जितना सरल था उतना ही मुश्किल भी। क्योंकि यह फैसला समाज की रीति-रिवाजों के दरवाजे पर दस्तक देने वाला था।
कलेसर को यह फैसला स्वीकार्य था, मगर अंतिम फैसला तो रमिया का होगा।
"सुनो बबुआ! मेरे मन में एकठो विचार आय गवा है। जिससे हम सभ के कष्ट दूर हो सकत है। हम सभ मिलकर एक-दूजन का दर्द बाँट सकत हैं। "-भीखन बैठते हुए बोला।
"अच्छा। कैसन विचार? "-रमिया ने जिज्ञासु भाव से पूछा।
" सुनो बबुआ! तुमरीं कष्ट हम दुन्नू भाय से देखल नहीं जात है। मगर हम दुन्नू भी जिम्मेदारी से बंधल हैं। अगर हम तीन्नों एक-दूजन की जिम्मेदारी बाँट सके तो......! "-कलेसर घबराते हुए बात को ऊपर-ऊपर से बताने की कोशिश कर रहा था।
" हाँ। मगर हम कुछ समझे नहीं। काका! "-रमिया ने माथे पर शिकन बनाते हुए कहा।
" देखो बबुआ! हम चाहता हूँ कि तुम हमरे बेटवा का स्थान लो यानि हमरी बहुरिया से बियाह रचा लो और कलेसर का बेटा बनकर एक भाय का फरज निभाओ-बहिन की शादी करो। हम दुन्नू तुमरीं बाबूजी के आॅपरेशन करवाने का जिम्मा लेत हैं। इस तरह हम लोगन का परिवार बहुत बड़ा हो जाएगा। "-भीखन ने एक साँस में सब कह डाली।
रमिया के सामने कोई विकल्प न था। सहसा मन में एक प्रश्न उठता है।
" मगर काका हम सभी की बिरादरी तो अलग हैं ना। "-रमिया ने भीखन से पूछा।
" हाँ बबुआ! दुःख - तकलीफ से उसकी जाति कोय नहीं पूछता। सिर्फ़ हमलोगन की ही पूछी जात है। जाति-धर्म की बात तो हम दुन्नू को करना चाहिए। तुम नौजवान हो, नये दौर के, फिर भी! "-भीखन ने प्रतिउत्तर में कहा।
" हाँ काका! मगर समाज? "-रमिया ने पूछा।
" समाज कुछ न है बबुआ। हम लोगन से ही तो समाज बनत है। और इ तो सिर्फ़ पैसे वालों का है। अगर तुम पैसे वाले हो तो समाज कुछ न बोलिहें चाहे कुछो करो। हमलोग कोय गलत काम थोड़े कर रहे हैं जो समाज से डरें। समाज न मानिहें तो इ दुनिया बहुत बड़ी है। उड़ चलेंगे। "-कलेसर ने रमिया के बात को काटते हुए कहा।
रमिया के मन में अब कोई प्रश्न शेष नहीं था। उसने शादी के लिए हाँ कह दिया।
अगले सुबह ही तीन टिकट, तीन बैग, और एक बोरा (जिसमें बर्तन थे) के साथ तीनों रमिया के गाँव के लिए रवाना हो गए। रमिया के बाबूजी का आॅपरेशन शुभ-शुभ हो गया। फिर दोनों ने बाबूजी को रमिया की शादी के लिए मना लिये। कलेसर और भीखन का गाँव रमिया के गाँव से लगभग क्रमशः 20, 22 किलोमीटर की दूरी पर था। दोनों ने अपना अपना जमीन बेचकर रमिया के घर में आ गए।
अब रमिया गाँव के करीब वाले बाजार में मुस्कान स्वीट्स के गल्ले पर बैठता है। तीनों बाप हलवाई हैं, तीनों माँ खेत और मवेशी को देखती है। बहन ससुराल में बस चुकी है और बीबी (जिससे वह बहुत प्यार करता है। ) घर-गृहस्थी और बेटी यानि मुस्कान को संभालती है।
गाँव के लोगों की वह जुबान जिसने रमिया को शादी करने पर भर-भर के गालियाँ दी थी । अब रमिया को सेठ बोलने लगे हैं। रमिया के एक फैसले ने तीन घरों को संभाला। रमिया की तारीफ करते लोग अब थकते नहीं है।
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